महिलाओं के खिलाफ 14.7% अपराध उत्तर प्रदेश में; आखिर क्यों यहां हाथरस जैसे मामले सबसे ज्यादा होते हैं?

हाथरस जिले में दलित युवती के साथ ऊंची जाति के चार लोगों द्वारा बर्बर दुष्कर्म और फिर युवती की मृत्यु ने देश की चेतना को हिलाकर रख दिया है। दुर्भाग्य से, मीडिया रिपोर्टों की मानें तो उत्तर प्रदेश के प्रशासन और पुलिस ने न्याय करने और सच्चाई सामने लाने की बजाय, पहले ही दिन से न्याय को दबाने का प्रयास शुरू कर दिया था।

ऐसे में यह सोचकर रूह कांप जाती है कि उत्तर प्रदेश में दलित समुदाय की लाखों महिलाओं को किस डर के साथ जीना पड़ता होगा। यह कहना अतिश्योक्ति नहीं होगी कि हाथरस में युवती की मौत के लिए काफी हद तक पुलिस और प्रशासन भी जिम्मेदार है क्योंकि अगर उसे समय पर चिकित्सा सुविधाएं मिलतीं तो उसकी जान बच सकती थी।

22 सितंबर तक पीड़िता की मेडिकल जांच तक नहीं हुई थी

खबरों के मुताबिक 14 सितंबर की एफआईआर में सामूहिक दुष्कर्म का जिक्र नहीं है और 22 सितंबर तक पीड़िता की मेडिकल जांच भी नहीं हुई थी। पीड़िता का बयान 22 सितंबर को दर्ज हुआ जिसमें उसने आरोपियों के नाम भी लिए।

पुलिस की लापरवाही का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि उसे थाने लाने के समय से अलीगढ़ के अस्पताल तक ले जाने में 6 घंटे लगे, जबकि हाथरस और अलीगढ़ के बीच केवल 37 किमी का फासला है। बाद में वरिष्ठ प्रशासनिक और पुलिस अधिकारियों द्वारा आरोपियों को बचाने के लिए ऐसा कथानक पेश किया गया कि युवती के साथ दुष्कर्म हुआ ही नहीं था। पीड़िता को परिवार की गैरमौजूदगी में आधी रात को जला दिया गया। परिवार को घर में कैद रखा गया। ऐसे में इसमें कोई आश्चर्य नहीं है कि राज्य सरकार ने दुष्कर्म के तथ्यों को छिपाने के लिए पीआर एजेंसी को नियुक्त किया।

देश में महिलाओं के खिलाफ हुए अपराधों में 14.7% यूपी से

महिलाओं के विरुद्ध अपराध के मामले सीमित नहीं हैं। नेशनल क्राइम ब्यूरो की 2019 की ‘क्राइम इन इंडिया’ रिपोर्ट उत्तर प्रदेश की स्याह तस्वीर पेश करते हैं। जबकि इसमें वे मामले शामिल ही नहीं हैं, जिनमें मामले दर्ज ही नहीं हुए या सामने ही नहीं आए। रिपोर्ट के मुताबिक उप्र में महिलाओं और दलितों के खिलाफ अपराध के देश में सबसे ज्यादा मामले दर्ज हुए।

देश में महिलाओं के खिलाफ हुए अपराधों में 14.7% (59,853) उप्र में हुए। पॉस्को एक्ट के तहत बच्चियों के साथ अपराध के भी 7,444 मामले दर्ज हुए। दलितों के खिलाफ अपराध के 11,829 मामले दर्ज किए गए, जो देश के कुल मामलों का 25.8% है। ये आंकड़े बताते हैं कि इस समय की सबसे बड़ी जरूरत है उप्र में महिलाओं के खिलाफ हो रहे अपराधों को रोकने के प्रयास।

तीन साल में सच्चाई दबाने की कई कोशिशें हुईं

पिछले तीन वर्षों में उप्र में भाजपा सरकार के राज में भी महिलाओं के खिलाफ अपराधों के मामले में पुलिस-प्रशासन की बेपरवाही, अकुशलता, अपराधियों को बचाने के प्रयास, पीड़ित को परेशान करने का रवैया और न्याय व सच्चाई को दबाने के प्रयास होते देखे गए हैं। उप्र की महिलाएं और बच्चे आज असुरक्षित महसूस कर रहे हैं। उनके मन में आत्मविश्वास लौटाने के लिए राज्य सरकार को कुछ कदम उठाने की जरूरत है। जैसे:

  • सबूतों को मिटाने, धमकाने, पीड़िता के परिवार को गैरकानूनी ढंग से बंद रखने और अ‌न्य दंडनीय अपराधों के लिए जिम्मेदार हाथरस प्रशासन और पुलिस के अधिकारियों समेत अन्य जिम्मेदारों के खिलाफ भारतीय दंड संहिता के तहत चंदपा पुलिस थाने में एफआईआर दर्ज की जाए।
  • प्रशासन और पुलिस के जिम्मेदार अधिकारियों को निलंबित किया जाए। साथ ही हाथरस घटना में न्याय को नष्ट करने में उनकी भूमिका के लिए उनके निलंबन की विभागीय कार्रवाई शुरू की जाए
  • हाथरस मामले में हो रही सीबीआई जांच की कोर्ट द्वारा निगरानी के लिए माननीय इलाहाबाद उच्च न्यायालय या माननीय सुप्रीम कोर्ट से निवेदन किया जाए।
  • अगर पीड़ित या पीड़ित का परिवार पुलिस विभाग द्वारा जांच में ढिलाई की शिकायत करता है तो यह अनिवार्य किया जाए कि महिलाओं और बच्चों के विरुद्ध अपराध के मामले में वरिष्ठ एडीशनल डिस्ट्रिक्ट और सेशन जज या जिले के डिस्ट्रिक्ट और सेशन जज के तहत स्वतंत्र न्यायिक जांच शुरू की जाएगी।
  • हाई कोर्ट के माननीय सेवानिवृत्त जस्टिस के तत्वाधान में एक स्पेशल टास्क फोर्स बनाने की जरूरत है, जो यह पड़ताल करे कि उत्तर प्रदेश में महिलाओं के खिलाफ, खासतौर पर जातीय यौन हिंसा जैसे अपराध के मामले लगातार क्यों बढ़ रहे हैं और जो यह बताए कि महिलाओं के विरुद्ध अपराधों को रोकने के लिए पुलिस को क्या कदम उठाने चाहिए। इस टास्क फोर्स में राज्य की पुलिस के सेवानिवृत्त महानिदेशक और सेवानिवृत्त चीफ सेक्रेटरी भी शामिल हों।
  • महिलाओं और बच्चों के खिलाफ होने वाले अपराधों के मामले में पीड़ित, पीड़ित के परिवार और सभी गवाहों को सुरक्षा प्रदान की जाए, ताकि अपराधियों को सफलतापूर्वक सजा दिलाई जा सके।(ये लेखक के अपने विचार हैं)


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विवेक के. तन्खा, राज्यसभा सांसद और वरिष्ठ अधिवक्ता


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